Saturday, 12 November 2011

वास्तु में दिशाओं की अहमियत पहचानें


वास्तु शास्त्र की अहमियत अब अंजानी नहीं रह गई है। अधिकांश लोग मान चुके हैं कि मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और उन्हें रखने का तरीका जीवन को प्रभावित करता है। ऐसे में, वास्तु शास्त्र की बारीकियों को समझना आवश्यक है। इन बारीकियों में सबसे अहम है-दिशाएं। वास्तु के अनुसार दिशाओं का भी भवन निर्माण मे उतना ही महत्व है, जितना कि पंच तत्वों का है। दिशाएं कौन-कौन सी हैं और उनके स्वामी कौन-कौन से हैं और वो किस तरह जीव को प्रभावित कर सकती हैं-ये समझना जरुरी है।वास्तु विज्ञान शास्त्रों के अनुसार चार दिशाओं के अतिरिक्त चार उपदिशाएं या विदिशाएं भी होती हैं। ये चार दिशाएं हैं- ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य। समरागण सूत्र में दिशाओं व विदिशाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
1.पूर्वः- पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र हैं और इसे सूर्य का निवास स्थान भी माना जाता है। इस दिशा को पितृ स्थान माना जाता है अतः इस दिशा को खुला व स्वच्छ रखा जाना चाहिए। इस दिशा मे कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंश वृद्धि मे भी सहायक होती है। यह दिशा अगर दूषित होगी तो व्यक्ति के मान सम्मान को हानि मिलती है व पितृ दोष लगता है। प्रयास करें कि इस दिशा मे टॉयलेट न हो वरना धन व संतान की हानि का भय रहता है। पूर्व दिशा में बनी चारदीवारी पश्चिम दिशा की चार दीवारी से ऊंची नहीं होनी चाहिए। इससे भी संतान हानि का भय रहता है।
2.पश्चिमः- जब सूर्य अस्तांचल की ओर होता है तो वह दिशा पश्चिम कहलाती है। इस दिशा का स्वामी श्वरूणश् है। यह दिशा वायु तत्व को प्रभावित करती है और वायु चंचल होती है। अतः यह दिशा चंचलता प्रदान करती है। यदि भवन का दरवाजा पश्चिम मुखी है तो वहां रहने वाले प्राणियों का मन चंचल होगा। पश्चिम दिशा सफलता यश, भव्यता और कीर्ति प्रदान करती है। पश्चिम दिशा का स्वामी वरूण है। इसका प्रतिनिधि ग्रह शनि है। ऐसे में गृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा वाला हो तो वो गलत है। इस कारण ग्रह स्वामी की आमदनी ठीक नहीं होगी और उसे गुप्तांग की बीमारी हो सकती है।
3.उत्तरः- उत्तर दिशा का स्वामी कुबेर है और यह दिशा जल तत्व को प्रभावित करती है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को खुला छोड़ देना चाहिए। अगर इस दिशा में निर्माण करना जरूरी हो तो इस दिशा का निर्माण अन्य दिशाओं की अपेक्षा थोड़ा नीचा होना चाहिए। यह दिशा सुख सम्पति, धन धान्य एवं जीवन मे सभी सुखों को प्रदान करती है। उत्तर मुखी भवन इसकी दिशा का ग्रह बुध है। उत्तरी हिस्से में खाली जगह न हो। अहाते की सीमा के साथ सटकर और मकान हों और दक्षिण दिशा मे जगह खाली हो तो वह भवन दूसरों की सम्पति बन सकता है।
4.दक्षिणः- आम तौर पर दक्षिण दिशा को अच्छा नहीं मानते क्योंकि दक्षिण दिशा को यम का स्थान माना जाता है और यम मृत्यु के देवता है अतः आम लोग इसे मृत्यु तुल्य दिशा मानते है। परन्तु यह दिशा बहुत ही सौभाग्यशाली है। यह धैर्य व स्थिरता की प्रतीक है। यह दिशा हर प्रकार की बुराइयों को नष्ट करती है। भवन निर्माण करते समय पहले दक्षिण भाग को कवर करना चाहिए और इस दिशा को सर्वप्रथम पूरा बन्द रखना चाहिए। यहां पर भारी समान व भवन निर्माण साम्रगी को रखना चाहिए। यह दिशा अगर दूषित या खुली होगी तो शत्रु भय का रोग प्रदान करने वाले होगी।
5.ईशानः- पूर्व दिशा व उत्तर दिशा के मध्य भाग को ईशान दिशा कहा जाता है। ईशान दिशा को देवताओं का स्थान भी कहा जाता है। इसीलिए हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई शुभ कार्य किया जाता है तो घट स्थापना ईशान दिशा की ओर की जाती है। सूर्योदय की पहली किरणें भवन के जिस भाग पर पड़े, उसे ईशान दिशा कहा जाता है। यह दिशा विवेक, धैर्य, ज्ञान, बुद्धि आदि प्रदान करती है। भवन मे इस दिशा को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र रखा जाना चाहिए। यदि यह दिशा दूषित होगी तो भवन मे प्रायः कलह व विभिन्न कष्टों के साथ व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होती है। इस दिशा का स्वामी रूद्र यानि भगवान शिव है और प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है।
6.आग्नेयः- पूर्व दिशा व दक्षिण दिशा को मिलाने वाले कोण को अग्नेय कोण संज्ञा दी जाती है। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है इस कोण को अग्नि तत्व का प्रभुत्व माना गया है और इसका सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य के साथ है। यह दिशा दूषित रहेगी तो घर का कोई न कोई सदस्य बीमार रहेगा। इस दिशा के दोषपूर्ण रहने से व्यक्ति क्रोधित स्वभाव वाला व चिड़चिड़ा होगा। यदि भवन का यह कोण बढ़ा हुआ है तो संतान को कष्टप्रद होकर राजभय आदि देता है। इस दिशा के स्वामी गणेश हैं और प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है। यदि आग्नेय ब्लॉक की पूर्वी दिशा मे सड़क सीधे उत्तर की ओर न बढ़कर घर के पास ही समाप्त हो जाए तो वह घर पराधीन हो सकता है

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Vastu Shastra also gives importance to the different debris materials found in the soil
during excavation processes of construction. Vastu guiding principles make use of them
as indicators as to how the land fared during the past.
Listed below are the equivalent interpretations for each material dug out of the soil
during excavation proceedings:
Stone -                               Abundance of wealth
Bricks  -                              All types of riches and possessions in the future
Copper or metals -              Affluence in life
Coal -                                  Illnesses and loss of health and wealth
Bones of animals -               Hindrance to future developments
Snake or Scorpion -             Stumbling blocks to progress in construction
Anthill or Termites  -           Damage to wealth and lessening the longevity of life
Straw or Eggs   -                Death leading to pointless expenses
Cotton   -                           Grief
Pieces of wood   -               Need to vacate the place
Skull  -                                Intense quarrels and litigation procedures
Horns of cow  -                  Wealth and abundant possessions
Gold or silver coins    --        All kinds of comforts and luxuries
Zinc or brass  -                    Wealth and comforts
Rugs or torn clothes  -        Conflict, quarrels, and strife
Iron or steel pipes  -            Death or Extinction




समाधि' का रहस्य

।।ॐ।।असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतंगमय।।ॐ।।
‘‘असत्य से सत्य की ओर मुझे ले चलो, अंधकार से ज्योति की ओर मुझे ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर मुझे ले चलो।’

समाधि की परिभाषा : समाधि समयातित है जिसे मोक्ष कहा जाता है। इस मोक्ष को ही जैन धर्म में कैवल्य ज्ञान और बौद्ध धर्म में निर्वाण कहा गया है। योग में इसे समाधि कहा गया है। इसके कई स्तर होते हैं। अंतिम स्तर है ब्रह्मलीन हो जाना। मोक्ष एक ऐसी दशा है जिसे मनोदशा नहीं कह सकते।



क्या हैं समाधि : मोक्ष या समाधि का अर्थ अणु-परमाणुओं से मुक्त साक्षीत्व पुरुष हो जाना। तटस्थ या स्थितप्रज्ञ अर्थात परम स्थिर, परम जाग्रत हो जाना। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाना। इसी में परम शक्तिशाली होने का 'बोध' छुपा है, जहाँ न भूख है न प्यास, न सुख, न दुख, न अंधकार न प्रकाश, न जन्म है, न मरण और न किसी का प्रभाव। हर तरह के बंधन से मुक्ति। परम स्वतंत्रता अतिमानव या सुपरमैन।

संपूर्ण समाधि का अर्थ है मोक्ष अर्थात प्राणी का जन्म और मरण के चक्र से छुटकर स्वयंभू और आत्मवान हो जाना है। समाधि चित्त की सूक्ष्म अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दु:ख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती। 

समाधि के प्रकार : 
योग में समाधि के दो प्रकार बताए गए हैं- A.सम्प्रज्ञात और B.असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।

भक्ति सागर में समाधि के 3 प्रकार बताए गए है- 1.भक्ति समाधि, 2.योग समाधि, 3.ज्ञान समाधि।

पुराणों में समाधि के 6 प्रकार बताए गए हैं जिन्हें छह मुक्ति कहा गया है- (1)साष्ट्रि, (ऐश्वर्य), (2)सालोक्य (लोक की प्राप्ति), (3) सारूप (ब्रह्मस्वरूप), (4)सामीप्य, (ब्रह्म के पास), (5) साम्य (ब्रह्म जैसी समानता) (6) लीनता या सायुज्य (ब्रह्म में लीन होकर ब्रह्म हो जाना)।

1.सम्प्रज्ञात समाधि- वैराग्य द्वारा योगी सांसारिक व्यक्ति और वस्तुओं से स्वयं को अलग कर लेता है और चित्त या मन से उसकी इच्छा को त्याग देता है, जिससे मन एकाग्र होता है और समाधि को धारण करता है। यह सम्प्रज्ञात समाधि कहलाता है। 

2.अस्प्रज्ञात समाधि- इसमें व्यक्ति को कुछ भान या ज्ञान नहीं रहता सिर्फ होश रहता है। मन जिसका ध्यान कर रहा होता है उसी में उसका मन लीन रहता है। उसके अतिरिक्त किसी दूसरी ओर उसका मन नहीं जाता। दरअसल यह अमनी दशा है। साक्षी भाव।

संप्रज्ञात समाधि को 4 भागों में बांटा गया है-
1.वितर्कानुगत समाधि- सूर्य, चन्द्र, ग्रह या राम, कृष्ण आदि मूर्तियों को, किसी स्थूल वस्तु या प्राकृतिक पंचभूतों की अर्चना करते-करते मन को उसी में लीन कर लेना वितर्क समाधि कहलाता है।
2.विचारानुगत समाधि- स्थूल पदार्थों पर मन को एकाग्र करने के बाद छोटे पदार्थ, छोटे रूप, रस, गन्ध, शब्द आदि भावनात्मक विचारों के मध्य से जो समाधि होती है, वह विचारानुगत अथवा सविचार समाधि कहलाती है।
3.आनन्दानुगत समाधि- आनन्दानुगत समाधि में विचार भी शून्य हो जाते हैं और केवल आनन्द का ही अनुभव रह जाता है।
4.अस्मितानुगत समाधि- अस्मित अहंकार को कहते हैं। इस प्रकार की समाधि में आनन्द भी नष्ट हो जाता है। इसमें अपनेपन की ही भावनाएं रह जाती है और सब भाव मिट जाते है। इसे अस्मित समाधि कहते हैं। इसमें केवल अहंकार ही रहता है। पतंजलि इस समाधि को सबसे उच्च समाधि मानते हैं। हालांकि इस समाधि के योग सूत्र में विस्तृत विरण मिलता है।

कैसे घटित होती है समाधि : जब व्यक्ति प्राणायाम, प्रत्याहार को साधते हुए धारणा व ध्यान का अभ्यास पूर्ण कर लेता है तब वह समाधि के योग्य बन जाता है। समाधि के लिए व्यक्ति के मन में किसी भी प्रकार के बाहरी विचार नहीं होते। व्यक्ति का मन पूर्ण स्थिर रहकर आंतरिक आत्मा में लीन हो जाता है तब समाधि घटित होती है। इसलिए समाधि से पहले ध्यान के अभ्यास को बताया गया है। ध्यान से ही चित्त (मन) विचार शून्य हो जाने की अवस्था में ही समाधि घटित होती है।

समाधि प्राप्त व्यक्ति का व्यवहार सामान्य व्यक्ति से अलग हो जाता है, वह सभी में ईश्वर को ही देखता है और उसकी दृष्टि में ईश्वर ही सत्य होता है। समाधि में लीन होने वाले योगी को अनेक प्रकार के दिव्य ज्योति और आलौकिक शक्ति का ज्ञान प्राप्त स्वत: ही होता है।

सिद्धियाँ : मोक्ष मार्ग पर कदम बढ़ाते ही बहुत-सी चमत्कारिक शक्तियाँ प्राप्त होती हैं, जिन्हें सिद्धियाँ कहते हैं, किंतु इनके प्रलोभन में उलझने वाला अंतत: पछताता है। फिर भी जान लें कि अट्‍ठारह सिद्धियाँ होती हैं- (1)अणिमा, (2)लघिमा, (3)गरिमा, (4)प्राप्ति, (5)प्राकाम्य, (6) महिमा, (7)ईशित्व, (8)वशित्व, (9)सर्वकामवा सादिता (10)सर्वज्ञ, (11)दूरश्रवण, (12)परकाया प्रवेश, (13)वाक्य सिद्धि, (14)कल्पवृक्ष, (15)सृष्टि शक्ति, (16)सहांरशक्ति, (17)अमरत्व और (18)सर्वाग्रगण्यता।

क्या मिलेगा मोक्ष से : आँखों के बगैर देखने की ताकत, कानों के बगैर सुनने की ताकत, मन और मस्तिष्क के बगैर बोध करने की ताकत, शरीर के जन्म और मरण के चक्र से बाहर निकलकर स्वयं को कहीं भी किसी भी रूप में अभिव्यक्त करने की ताकत और सच मानो तो इस ब्रह्मांड से अलग रहने की ताकत। ब्रह्मांड से अलग वही रह सकता है, जो ब्रह्म स्वरूप शुद्ध चैतन्य है।

Tratak Kriya

क्या आप किसी भी घटना के घटने से पहले उसे जानने का अनुभव करना चाहते हैं? कैसा रहे अगर किसी व्यक्ति के बारे में सोचने मात्र से, आपको उसका भविष्य दिखाई देने लगे। यह असम्भव नहीं है, आप बिन्दू त्राटक के अभ्यास से ये सब सम्भव बना सकते हैं। आइये जानते हैं क्या है बिन्दू त्राटक और इसे करने की विधि…विधि-: – बिन्दू त्राटक का अर्थ है बिन्दू लगाकर उस पर ध्यान केन्द्रित करना। – दीवार या हार्ड बोर्ड पर एक बिन्दू लगाकर इसका अभ्यास किया जाता है।- बिन्दू को तब तक बिना पलक झपकाए देखते रहें जब तक कि आंखों में पानी न आ जाए इस तरह रोज इसका अभ्यास पांच मिनट से शुरू कर समय अवधि को बढ़ाते हुए आधे से एक घंटे तक पहुंचाया जाता है।- बिन्दू का आकार भी अभ्यास के साथ बढ़ता है और धीरे-धीरे उसके चारों तरफ एक प्रकाश सा दिखाई देने लगता है इसके बाद अलग-अलग सात रंग की आभा दिखाई देती है। – एक स्थिति ऐसी आती है जब त्राटक के समय आप जिसका विचार करता हैं। उसके भविष्य से जुड़े सपष्ट संकेत आपको मिलने लगते है। ऐसा माना जाता है कि जो वाकई में इसका नियमित अभ्यास करता है। वह किसी व्यक्ति के आने से पूर्व सिर्फ उसके आने के समाचार मात्र से उसके आने के उद्देश्य पता लगा सकता है


रीर को स्वस्थ्य और शुद्ध करने के लिए छ: क्रियाएँ विशेष रूप से की जाती हैं। जिन्हें षट्‍कर्म कहा जाता है। क्रियाओं के अभ्यास से संपूर्ण शरीर शुद्ध हो जाता है। किसी भी प्रकार की गंदगी शरीर में स्थान नहीं बना पाती है। बुद्धि और शरीर में सदा स्फूर्ति बनी रहती है।

ये क्रियाएँ हैं:- 1.त्राटक 2.नेती. 3.कपालभाती 4.धौती 5.बस्ती और 6.नौली। आओ जानते हैं त्राटक के बारे में।

त्राटक क्रिया विध : जितनी देर तक आप बिना पलक गिराए किसी एक बिंदु, क्रिस्टल बॉल, मोमबत्ती या घी के दीपक की ज्योति पर देख सकें देखते रहिए। इसके बाद आँखें बंद कर लें। कुछ समय तक इसका अभ्यास करें। इससे आप की एकाग्रता बढ़ेगी।



सावधानी : त्राटक के अभ्यास से आँखों और मस्तिष्क में गरमी बढ़ती है, इसलिए इस अभ्यास के तुरंत बाद नेती क्रिया का अभ्यास करना चाहिए। आँखों में किसी भी प्रकार की तकलीफ हो तो यह क्रिया ना करें। अधिक देर तक एक-सा करने पर आँखों से आँसू निकलने लगते हैं। ऐसा जब हो, तब आँखें झपकाकर अभ्यास छोड़ दें। यह क्रिया भी जानकार व्यक्ति से ही सीखनी चाहिए, क्योंकि इसके द्वारा आत्मसम्मोहन घटित हो सकता है।

इसके लाभ : आँखों के लिए तो त्राटक लाभदायक है ही साथ ही यह आपकी एकाग्रता को बढ़ाता है। स्थिर आँखें स्थिर चित्त का परिचायक है। इसका नियमित अभ्यास कर मानसिक शां‍ति और निर्भिकता का आनंद लिया जा सकता है। इससे आँख के सभी रोग छूट जाते हैं। मन का विचलन खत्म हो जाता है।

त्राटक के अभ्यास से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है। सम्मोहन और स्तंभन क्रिया में त्राटक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह स्मृतिदोष भी दूर करता है और इससे दूरदृष्टि बढ़ती है।